दिल भी जैसे हमारा कमरा था
कुल असासा ज़मीं पे बिखरा था
आसमाँ ही उठा लिया सर पे
जाने क्या कुछ ज़मीं पे गुज़रा था
फिर नई ख़्वाहिशें उभर आईं
दिल अभी हादसों से उबरा था
चाँद की चाँदनी बजा लेकिन
रंग उस का भी साफ़ सुथरा था
क्या हुआ डूब क्यूँ गया आख़िर
ख़्वाब तो साहिलों पे उतरा था
आशियाँ तो बना लिया लेकिन
अब हमें आँधियों का ख़तरा था
अब फ़क़त ज़िंदगी बिताते हैं
वर्ना अपना भी नाज़-नख़रा था
ग़ज़ल
दिल भी जैसे हमारा कमरा था
मनीश शुक्ला