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दिल भी दाग़-ए-नक़्श-ए-कुहन से बुझा हुआ था | शाही शायरी
dil bhi dagh-e-naqsh-e-kuhan se bujha hua tha

ग़ज़ल

दिल भी दाग़-ए-नक़्श-ए-कुहन से बुझा हुआ था

शहनवाज़ ज़ैदी

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दिल भी दाग़-ए-नक़्श-ए-कुहन से बुझा हुआ था
चाँद के गिर्द भी इक हाला सा बना हुआ था

उस को एक ग़ज़ल पहुँचानी थी जल्दी में
लेकिन रस्ते में सन्नाटा खड़ा हुआ था

शोला चूम के रक्खे उस ने साँस दिए में
मैं ने झुक कर देखा काजल बहा हुआ था

छत से चेहरे पर गिरते ही रहे सितारे
आसमान का ख़ेमा थोड़ा फटा हुआ था

बस्ती से निकले हैं कुछ मिट्टी के खिलौने
इंसानों का नाम-ओ-निशाँ तक मिटा हुआ था

हाथ बाँध कर मेरे सारे अदू खड़े थे
लेकिन मैं अपनी तख़रीब पे तुला हुआ था

मुश्क भरी है मैं ने दोनों हाथों कटा कर
सोचों के पानी पर पहरा लगा हुआ था

उस की आँखें भी कुछ रोई रोई सी थीं
और मैं भी उस शाम बहुत ही थका हुआ था

भीग रहा था सब्ज़ा ओस के मोती पहने
सूखा बादल कुएँ के अंदर गिरा हुआ था

बच्चा इक पहिए को ले कर भाग रहा था
वक़्त झुकी दीवार के ऊपर बहा हुआ था

शाह-राहों पर उखड़े उखड़े साँस पड़े थे
दरिया भारी शहर के नीचे दबा हुआ था

सीने से साँसों का रिश्ता टूट चुका था
क़ैदी के पैरों का ताला खुला हुआ था