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दिल अपने रंज-ओ-ग़म से जाम-ए-जहाँ-नुमा था | शाही शायरी
dil apne ranj-o-gham se jam-e-jahan-numa tha

ग़ज़ल

दिल अपने रंज-ओ-ग़म से जाम-ए-जहाँ-नुमा था

साक़िब लखनवी

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दिल अपने रंज-ओ-ग़म से जाम-ए-जहाँ-नुमा था
अब आप ही बताएँ अच्छा था या बुरा था

सहरा था या चमन था जाने वही कि क्या था
इस दिल की इंतिहा है जो मुद्दतों जला था

तड़पूँ तू राज़ खोलूँ सँभलूँ तो इश्क़ ना-ख़ुश
जिस हाल को मैं समझा अच्छा वही बुरा था

पूछा न ज़िंदगी में यूँ तो किसी ने आ कर
मरने के बा'द जो था वो मुझ को पूछता था

शब को मिरी सदाएँ मुझ तक पलट के आईं
नालों की क्या ख़ता थी जब बंद रास्ता था

मंज़िल पे जब गिरा था थक कर तो मैं ने देखा
क़िस्सा मिरा ज़बान-ए-आलम पे चल रहा था

जान-ए-हज़ीं निकलती शाम-ए-फ़िराक़ क्यूँ कर
वो रात थी अँधेरी रस्ता न सूझता था

मेरी तरफ़ चले तुम जब जांकनी में था मैं
दुनिया है एक आता था एक जा रहा था

इक तरह की मुसीबत होती तो झेल लेते
हर शब नई ज़मीं थी हर दिन फ़लक नया था

अफ़्सोस है कि उम्र-ए-फ़ानी ने ख़त्म हो कर
मुझ को वही बताया जिस को मैं जानता था

ढूँडेंगी बा'द मेरे मुझ को चराग़ ले कर
वो महफ़िलें कि जिन में 'साक़िब' ग़ज़ल-सरा था