दिल अपना याद-ए-यार से बेगाना तो नहीं
गोया कि ख़ाली मय से ये पैमाना तो नहीं
मनता है मेरी बात तो नज़रें मिला के सुन
ये मेरा हाल-ए-ज़ार है अफ़्साना तो नहीं
हँसते हो मिल के दुनिया से क्या मेरे हाल पर
मैं आप का दीवाना हूँ दीवाना तो नहीं
ऐ शम्अ तुझ को जलना है अब उस की आग में
इक शो'ला तुझ से लिपटा है परवाना तो नहीं
दानिस्ता मुझ से जाता है ग़ैरों के सामने
वर्ना वो मेरे हाल से बेगाना तो नहीं
ऐ बर्क़ तुझ को धोका हुआ मुझ को देख कर
ज़ालिम क़फ़स है ये मेरा काशाना तो नहीं
तस्कीन-ए-ख़ुल्क़-ए-साक़ी को पीता हूँ मैं शराब
मेरी नज़र में साक़ी है पैमाना तो नहीं
पास-ए-अदब है क्या उठे आँख इस के रू-ब-रू
इस में सवाल-ए-जुरअत-ए-रिंदाना तो नहीं
झुकते हैं उस को हर जगह मौजूद पा के 'सोज़'
दिल में हमारे का'बा-ओ-बुत-ख़ाना तो नहीं
ग़ज़ल
दिल अपना याद-ए-यार से बेगाना तो नहीं
अब्दुल मलिक सोज़