दिल अगर दाग़दार हो जाता
इक सरापा बहार हो जाता
दामन-ए-सब्र हिज्र के हाथों
क्यूँ न यूँ तार-तार हो जाता
वाए मजबूरियाँ मोहब्बत की
ज़ब्त पर इख़्तियार हो जाता
मैं ने यूँ शिकवा-ए-जफ़ा न किया
वो अगर शर्मसार हो जाता
पास होता अगर वो जान-ए-बहार
बे-नियाज़-ए-बहार हो जाता
इक निगाह-ए-करम जो हो जाती
फिर तो बेड़ा ही पार हो जाता
उन की तिरछी नज़र का क्या कहना
जिस पे पड़ती शिकार हो जाता
उन निगाहों की मस्तियाँ तौबा
मय-कदा शर्मसार हो जाता
प्यार करते हैं वो जिन्हें 'शंकर'
काश उन में शुमार हो जाता

ग़ज़ल
दिल अगर दाग़दार हो जाता
शंकर लाल शंकर