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दिल-आज़ारी मोहब्बत में कहाँ मा'लूम होती है | शाही शायरी
dil-azari mohabbat mein kahan malum hoti hai

ग़ज़ल

दिल-आज़ारी मोहब्बत में कहाँ मा'लूम होती है

तालिब बाग़पती

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दिल-आज़ारी मोहब्बत में कहाँ मा'लूम होती है
अजब तस्कीं पस-ए-सोज़-ए-निहाँ मा'लूम होती है

निगाह-ए-नाज़ अक्सर दास्ताँ मा'लूम होती है
किसी की आँख हम-वस्फ़‌‌‌‌-ए-ज़बाँ मा'लूम होती है

ख़ुदाया ख़ैर क्या ताज़ा तबाही आने वाली है
ख़मोशी से क़रीब-ए-आशियाँ मा'लूम होती है

छुपी जाती है मंज़िल ही ग़ुबार-ए-राह-ए-मंज़िल में
मिरी क़िस्मत शरीक-ए-कारवाँ मा'लूम होती है

ये गर्म-ए-गुफ़्तुगू सय्याद किस से है ज़रा सुन लो
क़फ़स वालो सदा-ए-बाग़बाँ मा'लूम होती है

मिरी बातें तो वो शिकवा समझ कर सुन नहीं सकते
ख़मोशी भी उन्हें मेरी गराँ मा'लूम होती है

फ़रेब-ए-शौक़ में मंज़िल जिन्हें आँखें समझती थीं
वही अब आह-ए-गर्द-ए-कारवाँ मा'लूम होती है

ग़ुरूर-ए-हुस्न से कोशिश मतानत इख़्तियारी की
तुम्हारी शोख़ियों में राएगाँ मा'लूम होती है

ज़माने की ज़बाँ पर है उन्हीं की दास्ताँ 'तालिब'
उन्हें हर बात मेरी दास्ताँ मा'लूम होती है