दिल आया इस तरह आख़िर फ़रेब-ए-साज़-ओ-सामाँ में
उलझ कर जैसे रह जाए कोई ख़्वाब-ए-परेशाँ में
ये माना ज़र्रे ज़र्रे पर तुम्हारी मोहर अज़ल से है
मगर क्या मेरी गुंजाइश नहीं शहर-ए-ख़मोशाँ में
पता उस की निगाह-ए-वहशत-अफ़ज़ा का लगाना है
निगाहें वहशियों की देखता फिरता हूँ ज़िंदाँ में
यही है रूह का जौहर तुम आओगे तो निकलेगा
दम-ए-आख़िर रुका है एक आँसू चश्म गिर्यां में
मिरी जमईयत-ए-ख़ातिर का सामाँ हश्र क्या करता
क़यामत हो गई तरतीब-ए-अज्ज़ा-ए-परेशाँ में
फ़रोग़-ए-लाला-ओ-गुल का तमाशा देखने वाले
ये मेरे दिल की चोटें हैं जो उभरी हैं गुलिस्ताँ में
'अज़ीज़' आराइश-ए-गुलशन की कोई इंतिहा भी है
वो महव-ए-सैर-ए-गुल हैं या गुलिस्ताँ है गुलिस्ताँ में
ग़ज़ल
दिल आया इस तरह आख़िर फ़रेब-ए-साज़-ओ-सामाँ में
अज़ीज़ लखनवी