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दिखाते हैं जो ये सनम देखते हैं | शाही शायरी
dikhate hain jo ye sanam dekhte hain

ग़ज़ल

दिखाते हैं जो ये सनम देखते हैं

वाजिद अली शाह अख़्तर

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दिखाते हैं जो ये सनम देखते हैं
ख़ुदा की ख़ुदाई को हम देखते हैं

ये हैवान है दस्त-ए-तालेअ' पे भारी
नए जानवर का क़दम देखते हैं

ज़न-ओ-ख़्वेश-ओ-फ़र्ज़ंद-ओ-दौलत से छूटे
न देखे कोई जो कि हम देखते हैं

शहंशाह हम हैं दिलों पर हैं हाकिम
गदा तुम को ऐ ज़ी-हशम देखते हैं

फ़क़त हाथ काले नहीं बल्कि मुनइ'म
दिलों पर भी दाग़-ए-वरम देखते हैं

कहाँ तक उतरती है सीने पे मेरे
तिरी तेग़-ए-अबरू का दम देखते हैं

भगाती है मार-ए-सियह गो कि हम को
तिरी ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं का सम देखते हैं

ज़मीं पर भी देता नहीं चैन हम को
फ़लक तुझ से जौर-ओ-सितम देखते हैं

दुर-ए-अश्क से मेरा भरती है दामन
सख़ी तुझ को ऐ चश्म-ए-नम देखते हैं

न रंज और न शादी तवस्सुत है हम को
कि ऐश-ओ-अलम भी बहम देखते हैं

किसी माह ने उस को धोका दिया है
हम 'अख़्तर' को क्यूँ पुर-अलम देखते हैं