दिखाते हैं जो ये सनम देखते हैं 
ख़ुदा की ख़ुदाई को हम देखते हैं 
ये हैवान है दस्त-ए-तालेअ' पे भारी 
नए जानवर का क़दम देखते हैं 
ज़न-ओ-ख़्वेश-ओ-फ़र्ज़ंद-ओ-दौलत से छूटे 
न देखे कोई जो कि हम देखते हैं 
शहंशाह हम हैं दिलों पर हैं हाकिम 
गदा तुम को ऐ ज़ी-हशम देखते हैं 
फ़क़त हाथ काले नहीं बल्कि मुनइ'म 
दिलों पर भी दाग़-ए-वरम देखते हैं 
कहाँ तक उतरती है सीने पे मेरे 
तिरी तेग़-ए-अबरू का दम देखते हैं 
भगाती है मार-ए-सियह गो कि हम को 
तिरी ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं का सम देखते हैं 
ज़मीं पर भी देता नहीं चैन हम को 
फ़लक तुझ से जौर-ओ-सितम देखते हैं 
दुर-ए-अश्क से मेरा भरती है दामन 
सख़ी तुझ को ऐ चश्म-ए-नम देखते हैं 
न रंज और न शादी तवस्सुत है हम को 
कि ऐश-ओ-अलम भी बहम देखते हैं 
किसी माह ने उस को धोका दिया है 
हम 'अख़्तर' को क्यूँ पुर-अलम देखते हैं
        ग़ज़ल
दिखाते हैं जो ये सनम देखते हैं
वाजिद अली शाह अख़्तर

