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दिखाई देने के और दिखाई न देने के दरमियान सा कुछ | शाही शायरी
dikhai dene ke aur dikhai na dene ke darmiyan sa kuchh

ग़ज़ल

दिखाई देने के और दिखाई न देने के दरमियान सा कुछ

अब्दुल अहद साज़

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दिखाई देने के और दिखाई न देने के दरमियान सा कुछ
ख़याल की ला-मकानियों में उभर रहा है मकान सा कुछ

कोई तअय्युन कोई तयक़्क़ुन नज़र को महदूद रख सके जो
फ़लक से नीचे बहुत ही नीचे बना है इक साएबान सा कुछ

नुमू का तूफ़ाँ था आफ़रीनश की ज़द पे हम तुम खड़े थे दोनों
तुम्हें भी कुछ याद आए शायद मुझे तो आता है ध्यान सा कुछ

हवाएँ वाबस्तगी से पुर हैं फ़ज़ा पे मौजूदगी है तारी
नवाह-ए-जाँ में लहक रहा है बसे-बसाए जहान सा कुछ

कहीं ये मंज़र में क़ैद लम्हे कहीं ये लम्हों में क़ैद मंज़र
रसाई की आज़माइशों में रिहाई का इम्तिहान सा कुछ

अंधेरे काग़ज़ की वुसअतों में कहीं कहीं रौशनी के धब्बे
ये सई-ए-तजसीम-ए-ना-बयानी ये इश्तिबाह-ए-बयान सा कुछ