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दीवानगी-ए-शौक़ का सामाँ सजा के ला | शाही शायरी
diwangi-e-shauq ka saman saja ke la

ग़ज़ल

दीवानगी-ए-शौक़ का सामाँ सजा के ला

शफ़ीक़ देहलवी

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दीवानगी-ए-शौक़ का सामाँ सजा के ला
नादाँ गुहर कोई सर-ए-मिज़्गाँ सजा के ला

फ़नकार तू अगर है तो फ़न का दिखा कमाल
तस्वीर-ए-यार ता-हद-ए-इम्काँ सजा के ला

गुलशन पे है ख़िज़ाँ का तसल्लुत तो ग़म नहीं
दिल में फ़रेब-ए-हुस्न-ए-बहाराँ सजा के ला

दे माहताब बन के अंधेरों को रौशनी
मुर्दा दिलों के वास्ते दरमाँ सजा के ला

हम आज तेरी क़ैद से आज़ाद हो गए
ऐ ज़िंदगी अब और ही ज़िंदाँ सजा के ला

फिर ज़ख़्म मुंदमिल हुए जाते हैं ऐ नदीम
तू मेरा मेहरबाँ है नमक-दाँ सजा के ला

आलम का जो 'शफ़ीक़' है रहमत है सर-बसर
उस का ख़याल नज़्द-ए-राग-ए-जाँ सजा के ला