दीजे नहीं कसू को तो फिर लीजिए भी नहिं
नेकी न बन सके तो बदी कीजिए भी नहिं
तौक़ीर-ए-हुस्न शर्त है दिल देने के लिए
गर हुस्न ही न हो तो कभू रीझिए भी नहिं
होवे अगरचे अपनी शराफ़त उपर निगाह
हरगिज़ बदी के काम पे दिल दीजिए भी नहिं
ईधर से सीते जाओ और ऊधर से फटता जाए
ऐसे तरह के कपड़े को फिर सीजिए भी नहिं
देना दिलाना सारा है इक नाम के लिए
गर नाम भी न हो तो अबस छीजिए भी नहिं
कोई सा मोआ'मला हो पहले छान लीजिए
यक-बारगी भड़क के कभू कीजिए भी नहिं
मय का मज़ा जभी है कि जब माह-रू हो पास
गर माह-रू न होवे तो मय पीजिए भी नहिं
ग़ज़ल
दीजे नहीं कसू को तो फिर लीजिए भी नहिं
नैन सुख