दीदा ओ दिल में कोई हुस्न बिखरता ही रहा
लाख पर्दों में छुपा कोई सँवरता ही रहा
रौशनी कम न हुई वक़्त के तूफ़ानों में
दिल के दरिया में कोई चाँद उतरता ही रहा
रास्ते भर कोई आहट थी कि आती ही रही
कोई साया मिरे बाज़ू से गुज़रता ही रहा
मिट गया पर तिरी बाँहों ने समेटा न मुझे
शहर दर शहर मैं गलियों में बिखरता ही रहा
लम्हा लम्हा रहे आँखों में अंधेरे लेकिन
कोई सूरज मिरे सीने में उभरता ही रहा
ग़ज़ल
दीदा ओ दिल में कोई हुस्न बिखरता ही रहा
जाँ निसार अख़्तर