दीदा-ओ-दानिस्ता धोका खा गए
हम फ़रेब-ए-ज़िंदगी में आ गए
जब हुजूम-ए-शौक़ से घबरा गए
खो गए ख़ुद और तुम को पा गए
चैन भी लेने नहीं देते मुझे
मैं अभी भूला था फिर याद आ गए
मैं कहाँ जाऊँ नज़र को क्या करूँ
आप तो सारी फ़ज़ा पर छा गए
दिल ही दिल में उफ़ वो दर्द-ए-ना-गहाँ
आँखों ही आँखों में कुछ समझा गए
रुख़ से आँचल भी न सरका था अभी
नीची नज़रें हो गईं शर्मा गए
उफ़ ये ग़ुंचों का तबस्सुम ये बहार
हैफ़ अगर ये ग़ुंचे कल मुरझा गए
जिस क़दर ग़ुंचे खिले थे नौ-ब-नौ
मेरी आँखों से लहू बरसा गए
पूछते क्या हो इन अश्कों का सबब
वाक़िआत-ए-रफ़्ता फिर याद आ गए
अब तो 'शोर' अपना फ़साना ख़त्म कर
उन की आँखों में भी आँसू आ गए
ग़ज़ल
दीदा-ओ-दानिस्ता धोका खा गए
मंज़ूर हुसैन शोर