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दीदा-ए-कम-सिफ़ात अंदर से | शाही शायरी
dida-e-kam-sifat andar se

ग़ज़ल

दीदा-ए-कम-सिफ़ात अंदर से

हादिस सलसाल

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दीदा-ए-कम-सिफ़ात अंदर से
तू ने देखी है रात अंदर से

ख़्वाहिश-ए-नारा-ए-ज़फ़र-याबी
मुझ को होनी है मात अंदर से

ख़ैर-मक़्दम न कर उरूस-ए-चश्म
लुट चुकी है बरात अंदर से

ऐ फ़रेब-ए-बरून-ए-मौसम-ए-ज़र्द
सब्ज़ थे सारे पात अंदर से

अपने ठंडे बदन को छूता हूँ
जूँही जलते हैं हात अंदर से

हसरत-ए-दाद-ए-जुस्तुजू न रही
ऐसी बिगड़ी है बात अंदर से

हाए वो घर कि जिस में पेश आए
दसतकी हादसात अंदर से

शरर-इफ़शानी-ए-बयाज़-ए-ग़ज़ल
क्या हुए काग़ज़ात अंदर से

सुरमई ख़ुशबुओं के नश्शा है
रक़्स-फ़रमा है रात अंदर से

कोई लुत्फ़-ए-अजब कि है मसदूद
जिहत-ए-सद-जिहात अंदर से