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दीदा-ए-बे-रंग में ख़ूँ-रंग मंज़र रख दिए | शाही शायरी
dida-e-be-rang mein KHun-rang manzar rakh diye

ग़ज़ल

दीदा-ए-बे-रंग में ख़ूँ-रंग मंज़र रख दिए

बख़्श लाइलपूरी

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दीदा-ए-बे-रंग में ख़ूँ-रंग मंज़र रख दिए
हम ने इस दश्त-ए-तपाँ में भी समुंदर रख दिए

वो जगह जो लाल-ओ-गौहर के लिए मक़्सूद थी
किस ने ये संग-ए-मलामत उस जगह पर रख दिए

अब किसी की चीख़ क्या उभरे कि मीर-ए-शहर ने
साकिनान-ए-शहर के सीनों पे पत्थर रख दिए

शाख़-सारों पर न जब इज़्न-ए-नशेमन मिल सका
हम ने अपने आशियाँ दोश-ए-हवा पर रख दिए

अहल-ए-ज़र ने देख कर कम-ज़र्फ़ी-ए-अहल-ए-क़लम
हिर्स-ए-ज़र के हर तराज़ू में सुख़न-वर रख दिए

हम तो अबरेशम की सूरत नर्म-ओ-नाज़ुक थे मगर
तल्ख़ी-ए-हालात ने लहजे में ख़ंजर रख दिए

जिस हवा को वो समझते थे कि चल सकती नहीं
उस हवा ने काट कर लश्कर के लश्कर रख दिए

'बख़्श' सय्याद-ए-अज़ल ने हुक्म-ए-आज़ादी के साथ
और असीरी के भी ख़दशे दल के अंदर रख दिए