धूप थी सहरा था लेकिन जिस्म का साया न था 
आदमी इस से ज़ियादा तो कभी तन्हा न था 
खींचते थे अपनी जानिब रेगज़ारों के सराब 
दूर तक सहरा में लेकिन आब का क़तरा न था 
एक मुबहम ख़्वाब था आँखों में और दिल में जुनूँ 
ज़ेहन में लेकिन इमारत का कोई नक़्शा न था 
भीड़ थी बस्ती में लेकिन मैं किसे पहचानता 
इतने लोगों में किसी भी शख़्स का चेहरा न था 
इस क़दर शिद्दत से वो दरिया समुंदर से मिला 
अब समुंदर ही समुंदर था कहीं दरिया न था 
घर की अज़्मत हाए जिस दीवार से महफ़ूज़ थी 
घर के दरवाज़े पे अब वो टाट का पर्दा न था 
वो ग़ज़ल अपनी सजाता था लहू के रंग से 
फिर भी कहते हैं 'नफ़स' उस का कोई पेशा न था
        ग़ज़ल
धूप थी सहरा था लेकिन जिस्म का साया न था
नफ़स अम्बालवी

