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धूप थी सहरा था लेकिन जिस्म का साया न था | शाही शायरी
dhup thi sahra tha lekin jism ka saya na tha

ग़ज़ल

धूप थी सहरा था लेकिन जिस्म का साया न था

नफ़स अम्बालवी

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धूप थी सहरा था लेकिन जिस्म का साया न था
आदमी इस से ज़ियादा तो कभी तन्हा न था

खींचते थे अपनी जानिब रेगज़ारों के सराब
दूर तक सहरा में लेकिन आब का क़तरा न था

एक मुबहम ख़्वाब था आँखों में और दिल में जुनूँ
ज़ेहन में लेकिन इमारत का कोई नक़्शा न था

भीड़ थी बस्ती में लेकिन मैं किसे पहचानता
इतने लोगों में किसी भी शख़्स का चेहरा न था

इस क़दर शिद्दत से वो दरिया समुंदर से मिला
अब समुंदर ही समुंदर था कहीं दरिया न था

घर की अज़्मत हाए जिस दीवार से महफ़ूज़ थी
घर के दरवाज़े पे अब वो टाट का पर्दा न था

वो ग़ज़ल अपनी सजाता था लहू के रंग से
फिर भी कहते हैं 'नफ़स' उस का कोई पेशा न था