धूप थी और बादल छाया था
देर के बा'द तुझे देखा था
मैं इस जानिब तू उस जानिब
बीच में पत्थर का दरिया था
एक पेड़ के हाथ थे ख़ाली
इक टहनी पर दिया जला था
देख के दो जलते सायों को
मैं तो अचानक सहम गया था
एक के दोनों पाँव थे ग़ाएब
एक का पूरा हाथ कटा था
एक के उल्टे पैर थे लेकिन
वो तेज़ी से भाग रहा था
उन से उलझ कर भी क्या लेता
तीन थे वो और मैं तन्हा था
ग़ज़ल
धूप थी और बादल छाया था
नासिर काज़मी