EN اردو
धूप थी और बादल छाया था | शाही शायरी
dhup thi aur baadal chhaya tha

ग़ज़ल

धूप थी और बादल छाया था

नासिर काज़मी

;

धूप थी और बादल छाया था
देर के बा'द तुझे देखा था

मैं इस जानिब तू उस जानिब
बीच में पत्थर का दरिया था

एक पेड़ के हाथ थे ख़ाली
इक टहनी पर दिया जला था

देख के दो जलते सायों को
मैं तो अचानक सहम गया था

एक के दोनों पाँव थे ग़ाएब
एक का पूरा हाथ कटा था

एक के उल्टे पैर थे लेकिन
वो तेज़ी से भाग रहा था

उन से उलझ कर भी क्या लेता
तीन थे वो और मैं तन्हा था