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धूप सरों पर और दामन में साया है | शाही शायरी
dhup saron par aur daman mein saya hai

ग़ज़ल

धूप सरों पर और दामन में साया है

ज़करिय़ा शाज़

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धूप सरों पर और दामन में साया है
सुन तो सही जो पेड़ों ने फ़रमाया है

कैसे कह दूँ बीच अपने दीवार है जब
छोड़ने कोई दरवाज़े तक आया है

उस से आगे जाओगे तब जानेंगे
मंज़िल तक तो रास्ता तुम को लाया है

बादल बन कर चाहे कितना ऊँचा हो
पानी आख़िर मिट्टी का सरमाया है

आख़िर ये नाकाम मोहब्बत काम आई
तुझ को खो कर मैं ने ख़ुद को पाया है

'शाज़' मोहब्बत को अपनाना खेल नहीं
अपने हाथ से अपना हाथ छुड़ाया है