धूप सरों पर और दामन में साया है
सुन तो सही जो पेड़ों ने फ़रमाया है
कैसे कह दूँ बीच अपने दीवार है जब
छोड़ने कोई दरवाज़े तक आया है
उस से आगे जाओगे तब जानेंगे
मंज़िल तक तो रास्ता तुम को लाया है
बादल बन कर चाहे कितना ऊँचा हो
पानी आख़िर मिट्टी का सरमाया है
आख़िर ये नाकाम मोहब्बत काम आई
तुझ को खो कर मैं ने ख़ुद को पाया है
'शाज़' मोहब्बत को अपनाना खेल नहीं
अपने हाथ से अपना हाथ छुड़ाया है
ग़ज़ल
धूप सरों पर और दामन में साया है
ज़करिय़ा शाज़