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धूप का एहसास जाने क्यूँ उसे होता नहीं | शाही शायरी
dhup ka ehsas jaane kyun use hota nahin

ग़ज़ल

धूप का एहसास जाने क्यूँ उसे होता नहीं

ग़यास मतीन

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धूप का एहसास जाने क्यूँ उसे होता नहीं
वक़्त आवारा है ठंडी छाँव में होता नहीं

झूट की दीवार से लटके हुए जिस्मों के दिन
हो गए पूरे कि सच तो शब में भी सोता नहीं

हम तका करते हैं खिड़की से उतरते चाँद को
दौड़ कर उस को पकड़ लें ये कभी होता नहीं

दिल अजब पत्थर है पानी से पिघल जाए कहीं
और कभी जो आग में रख दीजिए रोता नहीं

रौशनी फूटे क़लम के आँख से क्यूँ कर 'मतीन'
आँसुओं के बीज दिल में जब कोई बोता नहीं