EN اردو
धूप जब तक सर पे थी ज़ेर-ए-क़दम पाए गए | शाही शायरी
dhup jab tak sar pe thi zer-e-qadam pae gae

ग़ज़ल

धूप जब तक सर पे थी ज़ेर-ए-क़दम पाए गए

तालिब जोहरी

;

धूप जब तक सर पे थी ज़ेर-ए-क़दम पाए गए
डूबते सूरज में कितनी दूर तक साए गए

आज भी हर्फ़-ए-तसल्ली है शिकस्त-ए-दिल पे तंज़
कितने जुमले हैं जो हर मौक़ा पे दोहराए गए

इस ज़मीन-ए-सख़्त का अब खोदना बेकार है
दफ़न थे जो इस ख़राबे में वो सरमाए गए

दुश्मनों की तंग-ज़र्फ़ी नापने के वास्ते
हम शिकस्तों पर शिकस्तें उम्र भर खाए गए

अब दरिंदा खोजियों की दस्तरस में आ गया
नहर के साहिल पे पंजों के निशाँ पाए गए

आज से मैं अपने हर इक़दाम में आज़ाद हूँ
झाँकते थे जो मिरे घर में वो हम-साए गए

इन गली-कूचों में बहनों का मुहाफ़िज़ कौन है
कस्ब-ए-ज़र की दौड़ में बस्ती से माँ-जाए गए