ढूँढती फिरती है अब उस को निगाह-ए-वापसीं
उस दरीचे में इक अफ़्सानी तबस्सुम था कहीं
सारी तशबीहात दफ़ना दें बयाबाँ में कहीं
तेरा क्या दुनिया में कोई भी किसी जैसा नहीं
तोड़ कर इक हुस्न हर दिन तुझ को रक्खा है हसीं
ज़िंदगी क्या अपने बारे में भी अब सोचें हमें
अब तो इस सहरा के हर गोशे पे होता है गुमाँ
गिर गया है जैसे मेरा आख़िरी सिक्का यहीं
इक तबस्सुम ख़ुद पे थोड़ा रहम कर लेने को है
और अगर ये शय भी मुझ से खो गई कल तक कहीं
तंज़ करता हूँ मैं लोगों से उलझ लेता भी हूँ
मुझ से लड़ लो जब तलक गूँगी है मेरी आस्तीं
रोज़-ओ-शब के कर्ब का रद्द-ए-अमल इक ख़ामुशी
ज़ीस्त ज़ालिम बाप की मजबूर बेटी तो नहीं
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ग़ज़ल
ढूँढती फिरती है अब उस को निगाह-ए-वापसीं
नजीब रामिश