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ढूँढता हूँ सर-ए-सहरा-ए-तमन्ना ख़ुद को | शाही शायरी
DhunDhta hun sar-e-sahra-e-tamanna KHud ko

ग़ज़ल

ढूँढता हूँ सर-ए-सहरा-ए-तमन्ना ख़ुद को

आरिफ़ अब्दुल मतीन

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ढूँढता हूँ सर-ए-सहरा-ए-तमन्ना ख़ुद को
मैं कि समझा था कभी रूह-ए-तमाशा ख़ुद को

अपने बच्चों की तरफ़ ग़ौर से जब भी देखा
कितने ही रंगों में बिखरा हुआ पाया ख़ुद को

और कुछ लोग मिरे साए तले सुस्ता लें
गिरती दीवार हूँ देता हूँ सहारा ख़ुद को

नूर तू मुझ से फ़रावाँ हुआ महफ़िल महफ़िल
ग़म नहीं शम-ए-सिफ़त मैं ने जलाया ख़ुद को

रेग-ए-उम्मीद के शादाब सराबों के तुफ़ैल
मैं ने देखा है कभी सूरत-ए-सहरा ख़ुद को

मेरी अज़्मत का निशाँ मेरी तबाही की दलील
मैं ने हालात के साँचे में न ढाला ख़ुद को

मेरी तख़्लीक़ मिरे काम न आई 'आरिफ़'
मैं ब-अंदाज़-ए-ख़ुदा पाता हूँ तन्हा ख़ुद को