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धूमें मचाएँ सब्ज़ा रौंदें फूलों को पामाल करें | शाही शायरी
dhuMein machaen sabza raunden phulon ko pamal karen

ग़ज़ल

धूमें मचाएँ सब्ज़ा रौंदें फूलों को पामाल करें

ताबिश देहलवी

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धूमें मचाएँ सब्ज़ा रौंदें फूलों को पामाल करें
जोश-ए-जुनूँ का ये आलम है अब क्या अपना हाल करें

दश्त-ए-जाँ में एक ख़ुशी की लहर कहाँ तक दौड़ेगी
वस्ल के इक इक लम्हे को हम क्यूँ कर माह ओ साल करें

जान से बढ़ कर दिल है प्यारा दिल से ज़ियादा जान अज़ीज़
दर्द-ए-मोहब्बत का इक तोहफ़ा किस किस को इरसाल करें

नंग-ए-करम है सोज़-ए-अलम से अहल-ए-दिल की महरूमी
दर्द-ए-इश्क़ मता-ए-जाँ है साहिब कुछ तो ख़याल करें

मौसम बदले फिर भी है आशोब-ए-विसाल-ओ-हिज्र वही
हाल ज़माने का जब ये हो क्या माज़ी क्या हाल करें

रूह की एक इक चोट उभारें दिल का एक इक ज़ख़्म दिखाएँ
हम से हो तो नुमायाँ क्या क्या अपने ख़द्द-ओ-ख़ाल करें

क़र्ज़ भला क्या देगा कोई भीक भी मिलनी मुश्किल है
नादारों की इस बस्ती में किस से जा के सवाल करें

हर इक दर्द को अपना जानें हर इक ग़म को अपनाएँ
ख़्वाह किसी की दौलत-ए-ग़म हो दिल को मालामाल करें

बे-हुनरी को हुनर करे ये अहल-ए-हुनर का दुश्मन है
चर्ख़-ए-कज-रफ़तार है आख़िर 'ताबिश' हम भी ख़याल करें