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धूल ही धूल अड़ी है मुझ में | शाही शायरी
dhul hi dhul aDi hai mujh mein

ग़ज़ल

धूल ही धूल अड़ी है मुझ में

नाहीद विर्क

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धूल ही धूल अड़ी है मुझ में
सब्ज़ इक शाख़ जली है मुझ में

कितनी वीरानी है मेरे अंदर
किस क़दर तेरी कमी है मुझ में

दूर तक अब तो ख़मोशी है बस
दूर तक अब तो यही है मुझ में

मान लेती हूँ मुकम्मल हो तुम
मान लेती हूँ कमी है मुझ में

ख़ुश्क होने ही नहीं देती आँख
वो जो सावन की झड़ी है मुझ में