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धुँदले धुँदले पेड़ उगती शाम की सरगोशियाँ | शाही शायरी
dhundle dhundle peD ugti sham ki sargoshiyan

ग़ज़ल

धुँदले धुँदले पेड़ उगती शाम की सरगोशियाँ

मरग़ूब अली

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धुँदले धुँदले पेड़ उगती शाम की सरगोशियाँ
जो है शह-ए-रग के क़रीं उस नाम की सरगोशियाँ

जब भी सोचा सर उठा कर अब जिएँगे कुछ दिनों
घेर लेती हैं हमें अंजाम की सरगोशियाँ

फिर गली कूचों में सन्नाटों का शायद रक़्स हो
बाँटते हैं लोग इक पैग़ाम की सरगोशियाँ

क्यूँ क़बीले में बहुत से लोग बद-ज़न हो गए
चाँद ने सुन ली थीं कल क्या बाम की सरगोशियाँ

रात क़तरा क़तरा टपकें आँख से मजबूरियाँ
शाम लम्हा लम्हा उभरीं जाम की सरगोशियाँ

आने वाली रुत में भी शायद न बनने दें हमें
आज तक गुज़रे हुए अय्याम की सरगोशियाँ