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धुँदला दिया ज़ीस्त का तसव्वुर | शाही शायरी
dhundla diya zist ka tasawwur

ग़ज़ल

धुँदला दिया ज़ीस्त का तसव्वुर

क़य्यूम नज़र

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धुँदला दिया ज़ीस्त का तसव्वुर
अपनी आँखों ही की नमी ने

हैवान-सिफ़त हुआ है आख़िर
दिखलाया कमाल आदमी ने

की दोस्ती भी तो दुश्मनी से
जाना न उन्हें मगर हमीं ने

गाढ़े की तो खाल खींच डाली
रात उन के जमाल-ए-रेशमीं ने

शो'लों से बुझाई प्यास जी की
यारों के मिज़ाज-ए-बलग़मीं ने

ये ज़ोहरा ये मुश्तरी ये महताब
क्या क्या न मिलीं नई ज़मीनें

मिट कर भी ग़ुबार-ए-कहकशाँ हैं
चमका दिया किस की हमदमी ने

जो गुल सर-ए-अर्श भी न खिलते
वो गुल भी खिला दिए ज़मीं ने

शायद कि तलब किया 'नज़र' को
का'बे में रसूल-ए-हाशमी ने