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धुआँ उड़ाते हुए दिन को रात करते हुए | शाही शायरी
dhuan uDate hue din ko raat karte hue

ग़ज़ल

धुआँ उड़ाते हुए दिन को रात करते हुए

ख़ुर्शीद तलब

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धुआँ उड़ाते हुए दिन को रात करते हुए
मलंग आग से ततहीर-ए-ज़ात करते हुए

कहा तो था ये अमानत सँभाल कर रखना
हमारी नज़्र वो कुल काएनात करते हुए

मैं एक जंग ख़ुद अपने ख़िलाफ़ लड़ता हुआ
तमाम अज़्व-ए-बदन मुझ से घात करते हुए

कि हम बने ही न थे एक दूसरे के लिए
अब इस यक़ीन को जीना हयात करते हुए

हर एक क़ैद से आज़ाद बंदिशों से परे
हसीन लोग हसीं वारदात करते हुए

अगरचे काम था मुश्किल मगर मज़ा आया
कशीद ज़हर से आब-ए-हयात करते हुए