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धोका था हर इक बर्ग पे टूटे हुए पर का | शाही शायरी
dhoka tha har ek barg pe TuTe hue par ka

ग़ज़ल

धोका था हर इक बर्ग पे टूटे हुए पर का

माज़िद सिद्दीक़ी

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धोका था हर इक बर्ग पे टूटे हुए पर का
वा जिस के लिए रह गया दामान शरर का

मैं अश्क हूँ मैं ओस का क़तरा हूँ शरर हूँ
अंदाज़ बहम है मुझे पानी के सफ़र का

करवट सी बदलता है अंधेरा तो उसे भी
दे देते हैं हम सादा-मनुश नाम सहर का

तोहमत सी लिए फिरते हैं सदियों से सर अपने
रुस्वा है बहुत नाम यहाँ अहल-ए-हुनर का

क़ाएम न रहा ख़ाक से जब रिश्ता-ए-जाँ तो
बस धूल पता पूछने आती थी शजर का

जो शाह के काँधों की वजाहत का सबब है
देखो तो भला ताज है किस कासा-ए-सर का

अश्कों से तपाँ है कभी आहों से ख़ुनुक है
इक उम्र से 'माजिद' यही मौसम है नगर का