धो गई चेहरों से गर्द यास का ग़ाज़ा हवा
कर गई अफ़्सुर्दा रूहों को तर-ओ-ताज़ा हवा
लाख बैठूँ छुप कर अपने बंद कमरों में मगर
तोड़ कर आ जाएगी एक एक दरवाज़ा हवा
सुब्ह आँचल की हवा दे कर खिलाती है जिसे
शब को बिखराती है ख़ुद उस गिल का शीराज़ा हवा
भर चले थे ज़ख़्म जो फिर से लगे मुँह खोलने
कुछ पुराने दर्द ले कर आई है ताज़ा हवा
जी तरसता है फिर उन लम्हों को जब यकजा थे सब
रक़्स-ए-मय बू-ए-समन रंग-ए-शफ़क़ ताज़ा हवा
हम तो अपनी ख़ाना-वीरानी का मातम कर चुके
देख कर जा कर अब तू कोई और दरवाज़ा हवा
वो लताफ़त वो महक क्यूँ 'चाँद' यकसर खो गई
भर रही है किन ख़ताओं का ये ख़म्याज़ा हवा
ग़ज़ल
धो गई चेहरों से गर्द यास का ग़ाज़ा हवा
महेंद्र प्रताप चाँद