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धो गई चेहरों से गर्द यास का ग़ाज़ा हवा | शाही शायरी
dho gai chehron se gard yas ka ghaza hawa

ग़ज़ल

धो गई चेहरों से गर्द यास का ग़ाज़ा हवा

महेंद्र प्रताप चाँद

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धो गई चेहरों से गर्द यास का ग़ाज़ा हवा
कर गई अफ़्सुर्दा रूहों को तर-ओ-ताज़ा हवा

लाख बैठूँ छुप कर अपने बंद कमरों में मगर
तोड़ कर आ जाएगी एक एक दरवाज़ा हवा

सुब्ह आँचल की हवा दे कर खिलाती है जिसे
शब को बिखराती है ख़ुद उस गिल का शीराज़ा हवा

भर चले थे ज़ख़्म जो फिर से लगे मुँह खोलने
कुछ पुराने दर्द ले कर आई है ताज़ा हवा

जी तरसता है फिर उन लम्हों को जब यकजा थे सब
रक़्स-ए-मय बू-ए-समन रंग-ए-शफ़क़ ताज़ा हवा

हम तो अपनी ख़ाना-वीरानी का मातम कर चुके
देख कर जा कर अब तू कोई और दरवाज़ा हवा

वो लताफ़त वो महक क्यूँ 'चाँद' यकसर खो गई
भर रही है किन ख़ताओं का ये ख़म्याज़ा हवा