EN اردو
धीरे धीरे शाम का आँखों में हर मंज़र बुझा | शाही शायरी
dhire dhire sham ka aaankhon mein har manzar bujha

ग़ज़ल

धीरे धीरे शाम का आँखों में हर मंज़र बुझा

फ़ारूक़ शफ़क़

;

धीरे धीरे शाम का आँखों में हर मंज़र बुझा
इक दिया रौशन हुआ तो इक दिया अंदर बुझा

वो तो रौशन क़ुमक़ुमों के शहर में महसूर था
सख़्त हैरत है कि ऐसा आदमी क्यूँ कर बुझा

इस सियह-ख़ाने में तुझ को जागना है रात भर
इन सितारों को न बे-मक़्सद हथेली पर बुझा

ज़ेहन की आवारगी को भी पनाहें चाहिए
यूँ न शम्ओं को किसी दहलीज़ पर रख कर बुझा

और भी घर थे हवा की ज़द पे बस्ती में 'शफ़क़'
मेरे ही घर का दिया तूफ़ान में अक्सर बुझा