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धरती में भी रेंग रही है ख़ून की इक शिरयान | शाही शायरी
dharti mein bhi reng rahi hai KHun ki ek shiryan

ग़ज़ल

धरती में भी रेंग रही है ख़ून की इक शिरयान

सय्यद नसीर शाह

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धरती में भी रेंग रही है ख़ून की इक शिरयान
पत्थर की रग रग में मचला अश्कों का तूफ़ान

चीख़ हवा की देने लगी है एक लुग़त तरतीब
फूलों का मौज़ू-ए-सुख़न है शोलों की पहचान

दरिया दरिया तूफ़ानों ने गीत किए कम्पोज़
सहरा सहरा धूल के बादल बाँट गए गुल-दान

शाम की अजरक ढूँढ के लाए धूप नहाए पेड़
शाम की लाली ओढ़ के आया अम्बर सा मेहमान

तेरी ख़ातिर ही ऐ मेरे भूक के मारे भाई
पेट पे पत्थर बाँध के रोया दो जग का सुल्तान

शाह-'नसीर' करेगा अपनी आँखें कल नीलाम
बस्ती बस्ती नगरी नगरी कर दो ये एलान