ढला जो दिन तो गया नूर-ए-आफ़्ताब भी साथ
शबाब ले गया रानाई-ए-शबाब भी साथ
वो साथ था तो शब-ए-ज़िंदगी चराग़ाँ थी
जिलौ में रहते थे अंजुम भी माहताब भी साथ
हयात क्या है फ़क़त मुस्तआर-ए-लम्हा-ए-शौक़
ये कह के ले गई मौज-ए-हवा हबाब भी साथ
इसी में ख़ैर है नज़रें झुकी रहें वर्ना
नज़र उठेगी तो जल जाएगा नक़ाब भी साथ
हमीं से रौनक़-ए-हस्ती है इस ख़राबे में
जो हम मिटे तो मिटेगी ये आब-ओ-ताब भी साथ
हयात दर्द की तुग़्यानियों में डूबी है
ग़म-ए-हबीब भी है ज़ीस्त के अज़ाब भी साथ
ख़ुदा-ए-अर्श-ए-सुख़न से हूँ फ़ैज़याब 'कलीम'
कि तूर-ए-शेर से लाया हूँ मैं किताब भी साथ
ग़ज़ल
ढला जो दिन तो गया नूर-ए-आफ़्ताब भी साथ
अता हुसैन कलीम