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ढल गया जिस्म में आईने में पत्थर में कभी | शाही शायरी
Dhal gaya jism mein aaine mein patthar mein kabhi

ग़ज़ल

ढल गया जिस्म में आईने में पत्थर में कभी

हकीम मंज़ूर

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ढल गया जिस्म में आईने में पत्थर में कभी
छुप सका मैं न किसी रंग के पैकर में कभी

मैं यही नुक़्ता-ए-मौहूम रहूँगा न सदा
मैं झलक उठ्ठूँगा आख़िर किसी मंज़र में कभी

वो समुंदर की बड़ाई से है मरऊब कि वो
तिश्ना-लब बन के रहा है न समुंदर में कभी

तुझ पे खुल जाएँगे ख़ुद अपने भी असरार कई
तू ज़रा मुझ को भी रख अपने बराबर में कभी

देखते हैं दर-ओ-दीवार हरीफ़ाना मुझे
इतना बे-बस भी कहाँ होगा कोई घर में कभी

अस्ल में कुछ भी न था चंद लकीरों के सिवा
हम भी रखते थे यक़ीं हर्फ़-ए-मुक़द्दर में कभी

उस से क्या पूछते हम अपने मआनी 'मंज़ूर'
फूल खिलते नहीं देखे किसी बंजर में कभी