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धड़कनें बंद-ए-तकल्लुफ़ से ज़रा आज़ाद कर | शाही शायरी
dhaDkanen band-e-takalluf se zara aazad kar

ग़ज़ल

धड़कनें बंद-ए-तकल्लुफ़ से ज़रा आज़ाद कर

शरीफ़ कुंजाही

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धड़कनें बंद-ए-तकल्लुफ़ से ज़रा आज़ाद कर
बरमला मुमकिन नहीं दिल में किसी को याद कर

ज़िंदगी इक दौड़ है तो साँस फूलेगी ज़रूर
या बदल मफ़्हूम इस का या न फिर फ़रियाद कर

हर ख़िज़ाँ की कोख से होती है पैदा नौ-बहार
दामन-ए-उम्मीद मैला और न दिल नाशाद कर

बस्तियाँ तू ने ख़लाओं में बसाईं भी तो क्या
दिल के वीरानों को देख उन को भी कुछ आबाद कर