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धार सी ताज़ा लहू की शबनम-अफ़्शानी में है | शाही शायरी
dhaar si taza lahu ki shabnam-afshani mein hai

ग़ज़ल

धार सी ताज़ा लहू की शबनम-अफ़्शानी में है

वज़ीर आग़ा

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धार सी ताज़ा लहू की शबनम-अफ़्शानी में है
सुब्ह इक भीगी हुई पलकों की ताबानी में है

आँख है लबरेज़ शायद रो पड़ेगा तू अभी
जैसे ज़िल्लत का मुदावा आँख के पानी में है

मैं नहीं हारा तू मेरे हौसले की दाद दे
इक नया अज़्म-ए-सफ़र इस ख़स्ता-सामानी में है

बे-समर बे-रंग मौसम बर्फ़ की सूरत सफ़ेद
और दिल उमडे हुए रंगों की तुग़्यानी में है

आग है सीने में तेरे मौजज़न तू याद रख
शम्अ सी रौशन अंधेरे घर की वीरानी में है

अन-गिनत रंगों के पर बिखरे पड़े हैं हर तरफ़
वक़्त का घायल परिंदा फिर से जौलानी में है

किस घने जंगल में जा कर अब छुपें बस्ती के लोग
आँख सी उभरी हुई सूरज की पेशानी में है