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धानी सुरमई सब्ज़ गुलाबी जैसे माँ का आँचल शाम | शाही शायरी
dhani surmai sabz gulabi jaise man ka aanchal sham

ग़ज़ल

धानी सुरमई सब्ज़ गुलाबी जैसे माँ का आँचल शाम

बद्र वास्ती

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धानी सुरमई सब्ज़ गुलाबी जैसे माँ का आँचल शाम
कैसे कैसे रंग दिखाए रोज़ लबालब छागल शाम

चरवाहे को घर पहुँचाए पहरे-दार से घर छुड़वाए
आते जाते छेड़ती जाए दरवाज़े की साँकल शाम

सूरज के पापों की गठरी सर पर लादे थकी थकी सी
ख़ामोशी से मुँह लटकाए चल देती है पैदल शाम

बेहिस दुनिया-दारों को हो दुनिया की हर चीज़ मुबारक
ग़म-ज़ादों का सरमाया हैं आँसू आहें बोतल शाम

सूरज के जाते ही अपने रंग पे आ जाती है दुनिया
जाने-बूझे चुप रहती है शब के मोड़ पे कोमल शाम

साँसों की पुर-शोर डगर पे रक़्स करेगा सन्नाटा
चुपके से जिस रोज़ अचानक छनका देगी पायल शाम

'बद्र' तुम्हें क्या हाल सुनाईं इतना ही बस काफ़ी है
तन्हाई में कट जाती है जैसे-तैसे मख़मल शाम