देती नहीं अमाँ जो ज़मीं आसमाँ तो है
कहने को अपने दिल से कोई दास्ताँ तो है
यूँ तो है रंग ज़र्द मगर होंट लाल हैं
सहरा की वुसअ'तों में कहीं गुल्सिताँ तो है
इक चील एक मुम्टी पे बैठी है धूप में
गलियाँ उजड़ गई हैं मगर पासबाँ तो है
आवाज़ दे के देख लो शायद वो मिल ही जाए
वर्ना ये उम्र भर का सफ़र राएगाँ तो है
मुझ से बहुत क़रीब है तू फिर भी ऐ 'मुनीर'
पर्दा सा कोई मेरे तिरे दरमियाँ तो है
ग़ज़ल
देती नहीं अमाँ जो ज़मीं आसमाँ तो है
मुनीर नियाज़ी