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देती नहीं अमाँ जो ज़मीं आसमाँ तो है | शाही शायरी
deti nahin aman jo zamin aasman to hai

ग़ज़ल

देती नहीं अमाँ जो ज़मीं आसमाँ तो है

मुनीर नियाज़ी

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देती नहीं अमाँ जो ज़मीं आसमाँ तो है
कहने को अपने दिल से कोई दास्ताँ तो है

यूँ तो है रंग ज़र्द मगर होंट लाल हैं
सहरा की वुसअ'तों में कहीं गुल्सिताँ तो है

इक चील एक मुम्टी पे बैठी है धूप में
गलियाँ उजड़ गई हैं मगर पासबाँ तो है

आवाज़ दे के देख लो शायद वो मिल ही जाए
वर्ना ये उम्र भर का सफ़र राएगाँ तो है

मुझ से बहुत क़रीब है तू फिर भी ऐ 'मुनीर'
पर्दा सा कोई मेरे तिरे दरमियाँ तो है