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देर तक इक साया-ए-अब्र गुमाँ देखा हुआ | शाही शायरी
der tak ek saya-e-abr guman dekha hua

ग़ज़ल

देर तक इक साया-ए-अब्र गुमाँ देखा हुआ

मुनव्वर अज़ीज़

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देर तक इक साया-ए-अब्र गुमाँ देखा हुआ
आग बनता जा रहा है साएबाँ देखा हुआ

फिर इसी शिद्दत की टीसें हैं दिल-ए-कज-फ़हम में
फिर वही है मजमा-ए-चारा-गराँ देखा हुआ

देखता रहता हूँ शक्लें सोचता रहता हूँ नाम
ढूँढता फिरता हूँ अक्स-ए-ना-गहाँ देखा हुआ

राज़ है कोई जो मुझ पर मुन्कशिफ़ होने को है
किस लिए लगता है अन-देखा जहाँ देखा हुआ

क्या कहूँ किस कैफ़ में गुम है मिरी चश्म-ए-ख़याल
हर कोई महसूस होता है यहाँ देखा हुआ

झूट ठहरा है 'मुनव्वर' उन रुतों के दरमियाँ
ख़्वाब-ए-इम्कान-ए-नुमू पैवंद-ए-जाँ देखा हुआ