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देखते हैं जब कभी ईमान में नुक़सान शैख़ | शाही शायरी
dekhte hain jab kabhi iman mein nuqsan shaiKH

ग़ज़ल

देखते हैं जब कभी ईमान में नुक़सान शैख़

शौक़ बहराइची

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देखते हैं जब कभी ईमान में नुक़सान शैख़
औने-पौने बेच डाला करते हैं ईमान शैख़

ब'अद मुद्दत के जहाँ में रहज़नों के दिन फिरे
सुनते हैं फिर हो गए हैं अब पुलिस कप्तान शैख़

हर ज़बाँ पर ज़िक्र-ए-हक़ और दिल में है याद-ए-बुताँ
ये नहीं खुलता कि हैं इंसान या शैतान शैख़

अहल-ए-शर तो आप को कहते हैं अम्म-ए-मोहतरम
और शैताँ आप को कहता है भाई-जान शैख़

बे-तकल्लुफ़ हाथ धो कर बैठ जाते हैं ज़रूर
देख लेते हैं बिछा जिस जा पे दस्तर-ख़्वान शैख़

शौक़ है लेकिन ख़िलाफ़-ए-वज़अ अपनी जान कर
मोल ले कर ख़ुद कभी खाते नहीं इक पान शैख़

गो तजावुज़ कर चुके हैं आप भी सौ साल से
ब्याह का रखते हैं लेकिन आज भी अरमान शैख़

जब कि बीमार-ए-मोहब्बत का नहीं मुमकिन इलाज
दे रहे हैं फूँक कर बेकार उसे लोबान शैख़

कैद हो हिर्स-ओ-हवस हो या फ़रेब-ओ-मक्र हो
आप ही के हाथ रहता है हर इक मैदान शैख़

'शौक़'-साहब उन की रग रग से हैं वाक़िफ़ ख़ूब हम
उस का हो जाए दिवाला जिस के हों मेहमान शैख़