देखता था मैं पलट कर हर आन
किस सदा का था न जाने इम्कान
उस की इक बात को तन्हा मत कर
वो कि है रब्त-ए-नवा में गुंजान
टूटी बिखरी कोई शय थी ऐसी
जिस ने क़ाएम की हमारी पहचान
लोग मंज़िल पे थे हम से पहले
था कोई रास्ता शायद आसान
सब से कमज़ोर अकेले हम थे
हम पे थे शहर के सारे बोहतान
ओस से प्यास कहाँ बुझती है
मूसला-धार बरस मेरी जान
क्या अजब शहर-ए-ग़ज़ल है 'बानी'
लफ़्ज़ शैतान सुख़न बे-ईमान
ग़ज़ल
देखता था मैं पलट कर हर आन
राजेन्द्र मनचंदा बानी