देखता कुछ हूँ ध्यान में कुछ है
है यक़ीं कुछ गुमान में कुछ है
सनम अपने को हम ख़ुदा जो कहें
कब क़ुसूर उस की शान में कुछ है
कुछ न देखा किसी मकान में हम
कहते हैं ला-मकान में कुछ है
तिश्ना-ए-ख़ूँ हैं ला'ल-ए-लब तेरे
सुर्ख़ी-ए-रंग-ए-पान में कुछ है
तेरे दीदार की हवस के सिवा
देख तो मेरी जान में कुछ है
तू जो तलवार खींचे है मुझ पर
ज़ख़्म भी दरमियान में कुछ है
देख तो अब जफ़ा-कशी की ताब
मुझ दिल-ए-ना-तवान में कुछ है
देख कर मुझ को नज़्अ' में तू ने
न कहा इस जवान में कुछ है
हम को पटका ज़मीन के ऊपर
गर्दिश-ए-आसमान में कुछ है
फ़ाएदा तुझ को ऐ ज़-ख़ुद ग़ाफ़िल
फ़िक्र-ए-सूद-ओ-ज़ियान में कुछ है
ये ज़माना 'मुहिब' ब-क़ौल 'दर्द'
आन में कुछ है आन में कुछ है
ग़ज़ल
देखता कुछ हूँ ध्यान में कुछ है
वलीउल्लाह मुहिब