देखता हूँ फूल और काँटे ब-हर-सू आज भी
याद करता हूँ तिरी ख़ुश्बू तिरी ख़ू आज भी
जाने क्यूँ जलती सुलगती शाम के ऐवान में
फैल जाती है तिरी बातों की ख़ुश्बू आज भी
ज़ीस्त के ख़स्ता शिकस्ता गुम्बदों में गाह-गाह
गूँजता है तेरी आवाज़ों का जादू आज भी
ज़ुल्फ़ कब की आतिश-ए-अय्याम से कुम्हला गई
ज़ुल्फ़ का साया नहीं ढलता सर-ए-मू आज भी
तू ने पाने हाथ में जिस पर लिखा था मेरा नाम
वो सनोबर लहलहाता है लब-ए-जू आज भी
वो तिरा पल-भर को मिलना फिर बिछड़ने के लिए
दिल की मुट्ठी में है इस लम्हे का जुगनू आज भी
मुद्दतें गुज़रीं मगर ऐ दोस्त तेरे नाम पर
डोल जाती है मिरे दिल की तराज़ू आज भी

ग़ज़ल
देखता हूँ फूल और काँटे ब-हर-सू आज भी
ख़ुर्शीद रिज़वी