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देखो तो मेरे नाला-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ की ओर | शाही शायरी
dekho to mere nala-o-ah-o-fughan ki or

ग़ज़ल

देखो तो मेरे नाला-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ की ओर

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार

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देखो तो मेरे नाला-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ की ओर
बान इस कड़क से जावे है कब आसमाँ की ओर

मस्जिद को छोड़ आए कलीसाईयाँ की ओर
छोड़ा नवाह-ए-काबा चले हम बुताँ की ओर

ज़ाहिद तिरे कमाल पे मारें हैं पुश्त-ए-पा
लाए फ़रो सर अपना जो पीर-ए-मुग़ाँ की ओर

सुख नींद बे-ख़ुदी की उसे तुर्त आ गई
लागा जो गोश टुक भी मिरी दास्ताँ की ओर

टुकड़े जिगर के बह चले हम-राह-ए-सैल-ए-अश्क
लाता है खींच ख़ार-ओ-ख़स आब-ए-रवाँ की ओर

ज़ालिम सिलाह बाँध के आना ब-क़स्द-ए-क़त्ल
क्या है ज़रूर, अपने किसी नीम-जाँ की ओर

कुछ कम नहीं तिरी निगह-ओ-अबरू-ओ-मिज़ा
मत हाथ ला तू ख़ंजर-ओ-तेग़-ओ-सिनाँ की ओर

तेरी निगाह-ए-मेहर ने मुझ से वो कुछ किया
जो कुछ कि चश्म-ए-माह करे है कताँ की ओर

उन अँखड़ियो की पुतलियों से आँख जा लगी
जा फिरती नईं निगाह अब उन अबरुवाँ की ओर

मिस्रा ये अपना आया 'जहाँदार' हम को याद
छोड़ा नवाह-ए-काबा चले हम बुताँ की ओर