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देखने वाले को बाहर से गुमाँ होता नहीं | शाही शायरी
dekhne wale ko bahar se guman hota nahin

ग़ज़ल

देखने वाले को बाहर से गुमाँ होता नहीं

हामिद जीलानी

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देखने वाले को बाहर से गुमाँ होता नहीं
आग कुछ ऐसे लगाई है धुआँ होता नहीं

अपने होने की ख़बर देता है ख़ुश्बू से मुझे
फैलता है चार-सू और दरमियाँ होता नहीं

रौशनी कर दे तमाशा-गाह से दहशत मिटे
कोहर इतना है कि पस-ए-मंज़र अयाँ होता नहीं

सोचना चाहो तो ज़ेर-ए-पा मिले हफ़्त-आसमाँ
देखना चाहो तो ज़ीने का निशाँ होता नहीं

मुंतज़िर रहने से 'हामिद' क़ुफ़्ल को ज़रबें लगा
आप ही खुल जाए दर ऐसा यहाँ होता नहीं