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देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना | शाही शायरी
dekhna bhi to unhen dur se dekha karna

ग़ज़ल

देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना

हसरत मोहानी

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देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना
शेवा-ए-इश्क़ नहीं हुस्न को रुस्वा करना

इक नज़र भी तिरी काफ़ी थी प-ए-राहत-ए-जाँ
कुछ भी दुश्वार न था मुझ को शकेबा करना

उन को याँ वादे पे आ लेने दे ऐ अब्र-ए-बहार
जिस क़दर चाहना फिर बाद में बरसा करना

शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी
दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना

सौम ज़ाहिद को मुबारक रहे आबिद को सलात
आसियों को तिरी रहमत पे भरोसा करना

आशिक़ो हुस्न-ए-जफ़ाकार का शिकवा है गुनाह
तुम ख़बरदार ख़बरदार न ऐसा करना

कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या है 'हसरत'
उन से मिल कर भी न इज़हार-ए-तमन्ना करना