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देखियो उस की ज़रा आँख दिखाने का मज़ा | शाही शायरी
dekhiyo uski zara aankh dikhane ka maza

ग़ज़ल

देखियो उस की ज़रा आँख दिखाने का मज़ा

जुरअत क़लंदर बख़्श

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देखियो उस की ज़रा आँख दिखाने का मज़ा
चितवनों में है भरा सारे ज़माने का मज़ा

किस मज़े से है अयाँ दुज़दी-ए-दिल है ज़ालिम
लूँ चरा क्यूँकि तिरे आँख चुराने का मज़ा

लज़्ज़त-ए-वस्ल कोई पूछे तो पी जाता हूँ
कह के होंटों ही में होंटों के मिलाने का मज़ा

क्या तिरे मय-कश-ए-उल्फ़त का ये कैफ़िय्यत है
दर्द-ए-दिल कर के बयाँ रोने रुलाने का मज़ा

दस्त-बर-दिल हो उठाता हूँ अजब लज़्ज़त-ए-दर्द
याद कर हिज्र में वो हाथ बढ़ाने का मज़ा

जो ख़मोशी में है लज़्ज़त नहीं गोयाई में
बे-ख़ुदी सा है कहाँ आप में आने का मज़ा

उस के लड़ने के भी सदक़े कि नज़र आता है
ऐन रंजिश में अजब आँख लड़ाने का मज़ा

ख़्वाब-ओ-ख़ुर से तिरे बीमार को क्या काम कि है
लज़्ज़त-ए-ख़्वाब न कुछ इस को न खाने का मज़ा

याद आता है तो जाता हूँ ख़ुदा जाने कहाँ
वो लगावट की निगाहों में बुलाने का मज़ा

क्या कहूँ वस्ल की शब ले के बलाएँ उस की
क्या उठाता हूँ मैं ज़ानू पे बिठाने का मज़ा

मैं तो फिर आप में रहता नहीं दिल से पूछो
आगे फिर भेंच के छाती से लगाने का मज़ा

दर पे उस पर्दा-नशीं के हो तो बा-सौत-ए-बुलंद
शेर उस वक़्त है 'जुरअत' से पढ़ाने का मज़ा