देखिए अहल-ए-मोहब्बत हमें क्या देते हैं
कूचा-ए-यार में हम कब से सदा देते हैं
रोज़ ख़ुशबू तिरी लाते हैं सबा के झोंके
अहल-ए-गुलशन मिरी वहशत को हवा देते हैं
मंज़िल-ए-शम्अ तक आसान रसाई हो जाए
इस लिए ख़ाक पतंगों की उड़ा देते हैं
सू-ए-सहरा भी ज़रा अहल-ए-ख़िरद हो आओ
कुछ बहारों का पता आबला-पा देते हैं
मुझ को अहबाब के अल्ताफ़-ओ-करम ने मारा
लोग अब ज़हर के बदले भी दवा देते हैं
साथ चलता है कोई और भी सू-ए-मंज़िल
मुझ को धोका मिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा देते हैं
ज़िंदगी मर्ग-ए-मुसलसल है मगर ऐ 'ताबिश'
हाए वो लोग जो जीने की दुआ देते हैं
ग़ज़ल
देखिए अहल-ए-मोहब्बत हमें क्या देते हैं
ताबिश देहलवी