देखी जो ज़ुल्फ़-ए-यार तबीअत सँभल गई
आई हुई बला मिरे सर पर से टल गई
पूछा अगर किसी ने मिरा आ के हाल-ए-दिल
बे-इख़्तियार आह लबों से निकल गई
उर्यां हरारत-ए-तप-ए-फ़ुर्क़त से मैं रहा
हर बार मेरे जिस्म की पोशाक जल गई
कैफ़ियत-ए-बहार जो याद आई ज़ेर-ए-ख़ाक
दाग़-ए-जुनूँ से अपनी तबीअत बहल गई
उस के दहान-ए-तंग की तंगी न पूछिए
एजाज़ समझे बात जो मुँह से निकल गई
फ़ुर्क़त में हम-बग़ल जो हुआ 'बर्क़' गोर से
हसरत विसाल-ए-यार की दिल से निकल गई
ग़ज़ल
देखी जो ज़ुल्फ़-ए-यार तबीअत सँभल गई
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़