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देखे कोई जो चाक-ए-गरेबाँ के पार भी | शाही शायरी
dekhe koi jo chaak-e-gareban ke par bhi

ग़ज़ल

देखे कोई जो चाक-ए-गरेबाँ के पार भी

फ़ारिग़ बुख़ारी

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देखे कोई जो चाक-ए-गरेबाँ के पार भी
आईना-ए-ख़िज़ाँ में है अक्स-ए-बहार भी

अब हर-नफ़स है भीगी सदाओं की इक फ़सील
मौज-ए-हवस थी गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार भी

क्या शोरिश-ए-जुनूँ है ज़रा कम नहीं हुआ
क़ुर्बत के बावजूद तिरा इंतिज़ार भी

कितनी अक़ीदतों के जिगर चाक हो गए
क्या सेहर था शुऊर-नज़र का ख़ुमार भी

जो अर्श-ओ-फ़र्श पर कभी आया नहीं नज़र
देखा है उस को हम ने सर-ए-रहगुज़ार भी

वो शोर-ए-हुस्न था दम-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल
हम सुन सके न अपने बदन की पुकार भी

'फ़ारिग़' ख़याल-ए-यार से मैं हम-सुबू रहा
गुज़री है मय-कदे में शब-ए-इंतिज़ार भी