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देखा तो कोई और था सोचा तो कोई और | शाही शायरी
dekha to koi aur tha socha to koi aur

ग़ज़ल

देखा तो कोई और था सोचा तो कोई और

इब्राहीम अश्क

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देखा तो कोई और था सोचा तो कोई और
जब आ के मिला और था चाहा तो कोई और

उस शख़्स के चेहरे में कई रंग छुपे थे
चुप था तो कोई और था बोला तो कोई और

दो-चार क़दम पर ही बदलते हुए देखा
ठहरा तो कोई और था गुज़रा तो कोई और

तुम जान के भी उस को न पहचान सकोगे
अनजाने में वो और है जाना तो कोई और

उलझन में हूँ खो दूँ कि उसे पा लूँ करूँ क्या
खोने पे वो कुछ और है पाया तो कोई और

दुश्मन भी है हमराज़ भी अंजान भी है वो
क्या 'अश्क' ने समझा उसे वो था तो कोई और